Thursday, June 2, 2011

वही वही वही!!!

तेइसवीं  मंजिल पर
फाइल से सरक कर
खिड़की से उड़ चले
कीमती कागज़ सा वक़्त
देखते देखते उड़ता चला जा रहा है
अपनी पकड़ से बाहर
अफ़सोस और निराशा
लाचार दिमाग
सिर्फ ये सोचता है कि
इसका डुप्लीकेट कैसे मिलेगा

जैसे पहाड़ के सर पर
हम सब के पैरों के बीच
लड़ता मचलता फ़ुटबाल है वक़्त
जो ज़रा से जोश में लगी लात से
लुढ़क चला है जिंदगी की पहाड़ी से नीचे
हमारी रफ़्तार और पकड़ से बहुत तेज़
नीचे नीचे और नीचे जाता
गुम होता वक़्त
पहाड़ी के ऊपर से
संभलकर झांकते बेबस हम सब
की अब खेल ख़त्म

जैसे समुद्र किनारे
रेत में बनाए घर में
लहर ने भर दिया हो पानी
बारिश में बहाई कागज़ की कश्ती
कुछ दूर चल कर जाए डूब
मेले के खेल में
डूब जाए पैसा और न निकले इनाम
फिर फिर याद आता है
वो वक़्त, वो स्कूल, वो दोस्त
और जिद कर बैठता है मन
वही वही वही !!!
पर क्या लौटेगा वक़्त?
हवा का एक झोंका आएगा
और खिड़की से उड़ा कागज़
वापस आ जाएगा
फिर खिड़की से?
गेंद हमारे दिल की सुनेगी
और न्यूटन को झुठला कर
फिर चढ़ जायेगी पहाड़
हमारा दिल रखने को?
रेत के किनारे का घर
बन जाएगा महल और हम सब खेलेंगे उसमें ?
बारिश में बहाई कश्ती
जा मिलेगी नदी में और फिर समुद्र में
उसमें बैठ घूमेंगे हम सात समंदर
और पांच महाद्वीप?
मेले के खेल में लगेगा अपना दांव
और वक़्त होगा हमारी मुट्ठी में?
मुश्किल है न ये सब?
पर फिर क्यों है यह जिद?
वही वक़्त, वही स्कूल, वही दोस्त
वही वही वही!!!

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