बुझी- बुझी उदास दास्तान कहता है
हरारतों की तरह जो बदन में रहता है
सुबह से रोज यहाँ ईंट-ईंट जुड़ती है
हर एक शाम यहाँ राजमहल ढहता है
हर एक जंग में गाढ़ा गरीब खून बहा
तख़्त पर बा-अदब शाहों के पास रहता है
जम्हूरियत का जश्न रौशनी से जगमग है
बड़ा गरीब है जो इसका खर्च सहता है
कोई एक शाम को दुखता हुआ सा छू भर दे
हमारे दिल से जमाने का दर्द बहता है
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