Wednesday, June 23, 2010

तुम आ रही हो न?

जब दिन और रात मिलेंगे
कल सुबह
मेरे शहर में
सुबह होगी
पर धूप नहीं निकलेगी

सूरज आएगा
पर चाँद ठहर जाएगा
आसमान में कुछ देर के लिए

ओस कुछ ज्यादा देर ठहरेगी
घास के कालीन पर
फूल खिलने के लिए
दिन चढ़ने का इंतज़ार नहीं करेंगे

दुनिया भर के बादल
जमा हो जाएंगे आसमान में
सब और से हवाएं चलेंगी
इस ओर
खुशबुओं के बर्तन सर पर उठाये

जमीन बेकरार हो जायेगी
तितलियाँ कुछ जल्दी उठेंगी सो कर
चिड़ियाँ आँखे मल कर बैठ जायेंगी
शाखों पर

मौसम बार बार
हाथ मलेगा बेचैनी से

तुम्हारे रास्ते के दोनों और के पेड़
सर जोड़ लेंगे अपने
तुम्हें ठंडी छाँव देने के लिए
और सूरज की पहली किरण
पत्तियों में उंगलियाँ डाल कर
बना लेगी झरोखे
तुम्हें देखने के लिए

तुम आ रही हो न!

तुम आओगी
छम छम
छम छम
पायल बजेगी तुम्हारी
और गाने लगेगी कोयल
मोर नाचने लगेंगे

ओस से गीली घास पर
जहां जहां पड़ेंगे तुम्हारे पाँव
धरती तुम्हारी शर्म से गुलाबी हो जायेगी

और सुनो
तुमको छूकर
बहकी हवा
और महकी धुप को
मैं बंद कर लूँगा
छोटी छोटी सुनहरी डिब्बियों में
मौसम पिंजरे में आ जाएगा

मैं तुमसे जूठी हुई जमीन के
दोनों सिरे पकडूँगा
और खींच ले जाऊँगा अपने घर में
और कालीन की तरह बिछा दूंगा

और फिर खोलूँगा
डिब्बियां
जिनमें बंद होगी
हवा और धूप
और तुम्हारी खुशबू

मौसम को पिंजरे से निकालूँगा
सूरज, चाँद, सितारे
सब सजा दूंगा छत पर

सुनो!
मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रह हूँ
तुम आ रही हो न?

1 comment:

  1. अति सुन्दर, खुबसूरत रचना धन्यबाद दीपक जी :)

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