Friday, June 18, 2010

इंतज़ार

वक़्त की बहती नदी ढहते किनारों पर
हम किसी उम्मीद के गिरवी महल हैं

(१)
हाथ से छूटे सरकती रेत का आँचल
सब्र बहता जाए है टूटे किनारों पर
आ बिछे चुपचाप तपती रेत पर दिन भर
हम वही निष्पाप कुम्हलाए कमल हैं
हम किसी उम्मीद के गिरवी महल हैं ----(१)

(२)
हम खड़े सैलाब के अगले निशाने पर
प्यास फिर भी होट के सूखे किनारों पर
डूबने से ठीक पहले प्यास की बंदिश
है बनी मुस्कान, पर आँखें सजल हैं
हम किसी उम्मीद के गिरवी महल हैं-----(२)

(३)
तितलियों ने झूठ बोला, फूल सब चुप हैं
और हवाएं बन गईं अनजान इस सब से
हम लुटे बाज़ार में, झूठे गवाहों के
हम बिके इतिहास की झूठी नक़ल हैं
हम किसी उम्मीद के गिरवी महल हैं---(३)

वक़्त की बहती नदी ढहते किनारों पर
हम किसी उम्मीद के गिरवी महल हैं

1 comment:

  1. बहुत खूब दोस्त, लिखते रहे! धन्यबाद

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