Friday, June 18, 2010

ख़त

तितलियाँ बंद किताबों में रखी हों जैसे
खुशबुएँ कैद लिफाफों में रखी हों जैसे

ख़त, कि एक शाम चिरागों की हो तरतीब कोई
हर सुबह ख़ास बनाने की हो तरकीब कोई

या कि कुछ शोख परिंदे उड़ें कतारों में
और फिर यूँ उड़ें की जा मिलें सितारों में

उनको छूना की सरे-शाम कभी पी लेना
मोहब्बतों को सरे-आम कभी जी लेना

तेरी मुस्कान सुबह रक्खी हो सिरहाने पर
तू मिले शाम को थक हार के घर आने पर

ख़त खुलें और फ़रिश्ते कलाम पढ़ने लगें
चाँद के रंग की पाजेब तेरी गढ़ने लगें

ख़त में फूलों की कतारें सी सजी हों जैसे
रात जुगनू की बरातें सी सजी हों जैसे

तेरे ख़त आज तक दामन से लगा रक्खे थे
सुनहरे राज़ जो दुनिया से बचा रक्खे थे

तेरे ख़त आज जलाना बहुत जरूरी था

बड़ा मायूस बहुत बेकरार बैठा हूँ
टूटे तारों के सिरहाने उदास बैठा हूँ

अब वो एहसास भुलाए नहीं भूले मुझको
जैसे तू भीड़ में यूँ ही कभी छू ले मुझको

या की बाज़ार में फिरते हुए दिख जाए तू
या उजाले की तरह ख्वाब में आ जाए तू

3 comments:

  1. beautiful Deepak.. I am out of words.. aapkaa shabdon kaa jholaa to bahut badaaa lagtaa hai.. would love to read more of it.. beautifull

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