लफ़्ज़ों का कोई अपना ईमान नहीं होता
मकसद को परखना भी आसान नहीं होता
बोलो तो तुम्हें कैसे मैं अपना खुदा कह दूं
पुजने से कोई पत्थर भगवान नहीं होता
गिन गिन के फरेबों का तुमसे हिसाब लेंगे
धोखों को भूल जाना आसान नहीं होता
बेफिक्र होके तुम तो अपनी छुरी चलाओ
हाकिम के सर कभी भी इल्जाम नहीं होता
पैरों तले सरकती साहिल की रेत जैसे
यूँ छोड़ के चल देना आसान नहीं होता
धोखों के शहर में जो इन्साफ का झरना हो
क्यों ऐसा भला कोई इंसान नहीं होता
वाह क्या खूब लिखा है बेहतरीन रचना :)
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