Friday, June 18, 2010

लफ्ज़

लफ़्ज़ों का कोई अपना ईमान नहीं होता

मकसद को परखना भी आसान नहीं होता

बोलो तो तुम्हें कैसे मैं अपना खुदा कह दूं

पुजने से कोई पत्थर भगवान नहीं होता

गिन गिन के फरेबों का तुमसे हिसाब लेंगे

धोखों को भूल जाना आसान नहीं होता

बेफिक्र होके तुम तो अपनी छुरी चलाओ

हाकिम के सर कभी भी इल्जाम नहीं होता

पैरों तले सरकती साहिल की रेत जैसे

यूँ छोड़ के चल देना आसान नहीं होता

धोखों के शहर में जो इन्साफ का झरना हो

क्यों ऐसा भला कोई इंसान नहीं होता

1 comment:

  1. वाह क्या खूब लिखा है बेहतरीन रचना :)

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